एक दिन सुबह तडके गया अपनी प्रतिभासे मिलने
कहा उसे,’ बिजली ‘ पर मुझे कुछ शब्द हैं लिखने
प्रतिभाने कहा, ” साथ कुछ भाव-विचारभी लाये हो,
या कविता लिखने मेरे पास खाली हाथही आये हो? ”
आगे उसने स्पष्ट किया ,”हूं तुम्हारी चेतनाका निर्माण ,
जानती हूं केवल चलन,है काव्य-परंपरा इसका प्रमाण
मेरी दिशा-गती भाव और विचारही देते हैं
जो भीतर हृदय व मस्तिष्कमें पनपते हैं
मैंने कहा ” लेकिन इस निर्जीव वस्तुके विषयमें
भला कौनसे प्रबल भाव हो सकते हैं मेरे हृदयमें !”
सुझाया फिर उसने के अपने दिमागसे जरा सोचूं,
जहां मेरी बुद्धीका वास है,तनिक वहां जा कर पूंछूं
परंतु बुद्धीने कहा, ” मै रखती हूं लेखा-जोखा
निरंतर अनुभूती और विचारसे इस जीवनका ,
पंच इंद्रियोंको मिली अनुभूतियां और
उनपर तुम्हारी सोचका व्यापार,
इनसेही चलता मेरा कारोबार !
जिस विषयका तुमने अपने आपमें
ना अनुभव किया ना किया कुछ विचार,
मैं विवश हूं, पर तुम्हेंही तलाशना होगा
और तराशना होगा उससे अपना सरोकार!”
फिर दिलो-दिमागसे हुआ बेजार,प्रतिभासेभी जब गया हार,
लौटा मैं हताश,अनलिखी निराधार कविताकी थामे पतवार
कागज-कलमके सिवा मेरे पास कुछ ना था,
प्रतिभाका सुनाया कडवा सही,पर सचही था
अब सोचा है सीधे जा बिजलीसेही मिलूंगा,
और उसको गर थोडा-बहुतभी समझ पाऊंगा,
तो क्या पता,शायद कुछ लिखभी जाऊंगा !