वो बैठे हैं रूबरू और शाम ढलने को है
दरमियाँ का शीशा अब पिघलने को है
छोड़ आया बीच मझधार यादों को तेरी
डूबती यह नैया अब सम्हलने को है
क्या है ये शोरो-गुल, क्यों धुआँ सा है
शायद फिर कारवां निकलने को है
तेरे संग तराशे थे जो नाजों से हमने
वक़्त का दरिया वो लम्हे निगलने को है
मैंने जल्दबाजी में काटी है जिंदगी,पर
इतमिनान से बड़े दम निकलने को है
रोज नया ऐलाने-जंग सुनता हूँ मैं
देखें कौन इंसानियत कुचलने को है
मुद्दतों बाद हल्की मुस्कुराहट ये कैसी
जानता हूँ अब ये लावा उगलने को है
06 05 2008 येथे 6:23 सकाळी |
अच्छा है.
06 05 2008 येथे 9:51 सकाळी |
Kharach khup chan kavita ahe hi..
07 05 2008 येथे 3:23 सकाळी |
बहुत खूब !
08 05 2008 येथे 12:58 सकाळी |
शुक्रिया , आदाब !
25 06 2008 येथे 3:12 pm |
mast
10 08 2010 येथे 3:30 सकाळी |
excellent
11 08 2010 येथे 11:32 pm |
Thanks, glad you liked it !