सुबह

नहीं जानता मैं कि उस ओर क्या है
यहाँसे जुदा वहाँ और क्या है
जहाँ रोशनी है, वहाँ कुछ तो होगा,
अनबनीमें शायद नया सचभी होगा…
सवालोंमें उलझासा दिलका जहाँ है
परखूँ जवाबोंको  फुरसत कहाँ है
नहाता उजालेमें कोई कल तो होगा
भरा उम्मीदोंसे कोई पल तो होगा ?
मैं हूँ मानता कि यह रस्ता नया है
सिवा हमारे न कोई गया है
पुकारे है मंझिल और जानाही होगा
होनी है सुबह दिनको आनाही होगा !

3 प्रतिसाद to “सुबह”

  1. आलोक Says:

    मंझिल – मंज़िल

    सुबह छः बजे यह प्रेरणादायक कविता पढ़ाने के लिए शुक्रिया।

  2. mehek Says:

    wo subhah jarur hogi bas man ki kiwado ko kholne ki der bhar hai,bahut khubsurat kavita hai.

  3. वाचून बघा Says:

    Thanks, glad you liked it !

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