विश्व-निर्माणके पूर्व ,
था ब्रह्म एकल सम्पूर्ण
सदैव सत-चित-आनंदमें स्थित
परंतु स्वयमसे अपरिचित
किसीभी अनुभूतीसे परे
अद्वैत सर्वत्र विचरे
अनुभवके माध्यमसे
अपने आपको जाननेकी,
किसी और दृष्टीसे
स्वयमको पहचाननेकी
आंतरिक स्फूर्तीसे
हुई रचना फिर द्वैतकी !
स्वयमसे भिन्न होकर
परम-आनंदकी दशा त्यागकर
ब्रम्हने सोच विचार कर
टीसका आविष्कार कर,
आत्म-अनुभूतीके हेतुसे,
किया आरंभ विश्वसंभार फिर !
अद्वैत छोड गर प्रभू
न त्यागते आनंदको,
और अपनाते द्वैतकी टीसको
शायदही होता अनेकता,
भिन्नताका यह निर्माण…
ना ही मिलता किसीभी
अनुभवका यथार्थ परिमाण !
क्योंकी एकही होता है
स्वर्ग तो सबका,
किंतु नर्क अपना
अलग हरेक का….
सही मानेमें यह एक वरदान,
अपनी टीसही ,
देती है प्रत्येकको
अपनी-अपनी, अलग पहचान !
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