सुबह सुबह, एसेमेस उसका
मीठा, जैसे जूस ‘ऊस’ का !
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सुबह हुई, है कहाँ एसेमेस उसका
रोज़ वह पढनेका लगा है चसका
यह आदत छोड दूँ, नही मेरे बसका!
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एक ज़माना था, जब थे यह कहते,
‘ कितने हैं हमारे खयालात मिलते!’
अब तो यह आलम है के हर पल
कहते हैं याद कर गुज़रा हुआ कल,
‘हमखयाल, और हम ? इम्पॉसिबल!’
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